हफ्ते भर पहले परीक्षाएं चल रही थीं, न केवल विद्यार्थियों, बल्कि किसानों और उनके धैर्य की भी। विद्यालय जाते-आते रास्ते भर सरसब्ज खेती के दृश्य दिखाई पड़ते हैं। दरअसल, कोटा से पचास किमी दूर यह क्षेत्र काश्तकारी के लिए जाना जाता है। जल की पर्याप्त उपलब्धता तथा उपजाऊ जमीन इसका प्रमुख कारण है। सरसों की फसल, जो कल तक अपना पीत सौंदर्य बिखेर रही थी, वह पक कर अब कटी हुई पड़ी है और खलिहानों में जाने की तैयारी हो रही है। खेतों में मजदूर लगे हुए हैं और सरसों के गठ्ठर बांध कर डाल रहे हैं। पिछली बार यहां लहसुन की प्रचुर मात्रा में खेती की गई थी। कुछ किसानों को लहसुन के अच्छे दाम मिले, लेकिन शुरू में लहसुन के बाजार भाव ने उनकी कमर तोड़ दी और लागत का मूल्य भी नहीं मिल सका। कितनी परीक्षाएं लेती है कुदरत किसान की, मैं सोचता हूं। मेरे पास परीक्षा के प्रश्नपत्र होते हैं, जो कड़ी सुरक्षा में ले जाए जाते हैं, लेकिन किसान के पास ऐसी कोई सुरक्षा का बंदोबस्त है क्या? प्रकृति उसकी वरदायिनी है और वही उसकी कोपदायिनी। साथ में दिन- रात फसल की रक्षा के लिए खेतों में कांटेदार मेड़ बांधना, सिंचाई का प्रबंधन और महंगी होती बिजली की दरें तथा खाद के बढ़ते दाम से मुकाबला करना। बिजूका बना कर कीट-पतंगों, पंछियों, जंगली जानवरों से रक्षा अलग करनी पड़ती है। इन दिनों प्रकृति अपने शबाब पर हैतरह-तरह के रंग बिरंगे परिधान ओढ़े खेत दिखाई देते हैं। कहीं लौकी के सफेद फूल हैं तो कहीं अलसी के नीले फूलों से अलग छटा बिखरी हुई है। 'नील परिधान बीच सुकुमार खिल रहा मृदुल अधखुला अंग'- प्रसाद की पंक्तियां मन में तैर जाती हैं। कहीं पर धनिया की फसल लहालहा रही है, लगता है जगत में व्याप्त हिंसा और अपराध के खिलाफ श्वेत वस्त्र धारण कर वह मौन और शांति का संदेश देना चाहती है। आगे बढ़ता हूं तो गेहूं के लहलहाते खेत हाथ हिला कर रुकने का आग्रह करते दिखाई देते हैं। मैं सोचता हूं कि ये भी हमारे विद्यार्थियों की तरह हैं। एक तरफ कक्षा बारह के विद्यार्थी, जो इस साल विद्यालय छोड़ कर चले जाएंगे, ये पीतमुखी हो रहे हैं। मानो गांव की स्मृतियों और धरोहर से जुदा होने का दुख इनके चेहरों पर उमड़ आया हो। दूसरी ओर हरे हरे गेहूं के खेत मानों कक्षा दसवीं के विद्यार्थी, जिनकी परीक्षाओं के दौर अभी चल रहे हैं और इम्तिहान अभी बाकी हैं जीवन में। किसानों को लेकर हिंदी साहित्य में मैथिलीशरण गुप्त से लेकर निराला, केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन तक ने कलम चलाई है और उनके जीवन को रेखांकित करने का ईमानदार प्रयास किया है। हालांकि आज के जीवन संघर्षों में किसान हारा नहीं है, उसकी आस्थाएं और श्रम के प्रति समर्पण का भाव डगमगाया भी नहीं है। प्राण-पण से अपनी माटी को स्नेह करते हुए वह संपूर्ण मानव जाति के लिए अन्न उत्पादन में लगा हुआ है, लेकिन उसकी परीक्षाओं के दिन खत्म नहीं होते। कभी असमय वर्षा का खतरा, तो कभी सूखे की चुनौती। अभी जब कुछ दिन पहले बारिश हुई और कुछ क्षेत्रों में ओला वृष्टि हुई, तो किसानों के मखमंडल पर चिंता की गहरी लकीरें मैंने समझने की कोशिश की। उनकी फसलें तैयार खड़ी थीं और मौसम रंग दिखा रहा था। उनके चेहरों पर कुछ ऐसे भाव थे जैसे हमारे नौनिहाल कहीं दूर देश में संकटग्रस्त स्थिति में फंस गए हों और लाचार मां- बाप चुपचाप ताक रहे हों। आगे बढ़ने पर चने की खेती दिखती है। उसके एक से डेढ़ फुट के पौधे और गुलाबी फूल एक निराली शोभा प्रकृति में फैलाते हैं। एक बुजर्ग किसान बताते हैं कि इस बार देखिए, आमों में बौर कैसे भर के आया हैज। मैं पूछता हूं- तो? वे बताते हैं कि जिस वर्ष आम्र मंजिरयां बहुतायत में आती हैं उस साल फसल बढ़िया होती है। यह कह कर उनके अंदर का उल्लास शिशुवत बाहर झलक आता है। मुझे नागार्जुन की पंक्तियां सहसा स्मरण हो उठती हैं- 'वे हुलसित हैं, अपनी ही फसलों में डूब गए हैं, तुम हुलसित हो चितकबरी चांदनियों में खोए हो, उनको दुख है, नए आम की मंजरियों को पाला मार गया है। लेकिन इस बार वे सचमुच हुलसित हैं, आम की मंजरियों को पाला नहीं मारा है। जैसे मैं खुश होता हूं, जब मेरे स्कूल के बच्चे बेहतर परीक्षा परिणाम देते हैं। उनके प्रश्नपत्र के बाद दंतुरित मुस्कान और चहकते वार्तालाप आने वाले भविष्य का मंजर बता देते हैं। ऐसे ही ये धरती पुत्र अपनी फसल रूपी शिशुओं के उम्दा प्रदर्शन से संतुष्ट हैं, आह्लादित हैं उन्हें भी उम्मीद है कि इस वर्ष उनके कर्ज कम हो जाएंगे, उनकी ललनाओं के हाथ पीले हो सकेंगे घर की दीवारों पर पलस्तर हो सकेगा। इस परीक्षा में उन्हें भी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने की उम्मीद है।